Friday, 26 September 2014

हिमाचल की पहचान कुल्लू दशहरा

इ पेपर आनी दिस वीक 

हिमाचल की पहचान कुल्लू दशहरा

शिवराज शर्मा  छविन्दर शर्मा चमन शर्मा 
भारतीय कैलेंडर के अनुसार आश्विन महीने के शुक्लपक्ष की दशमी को कुल्लू दशहरे की शुरुआत होती है। जहां सब जगह रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण का पुतला जलाया जाता है, कुल्लू में काम, क्रोध, मोह और अहंकार के नाश के प्रतीक के तौर पर कुछ जानवरों की बलि दी जाती है…
हिमाचल प्रदेश में कुल्लू का दशहरा  सबसे अलग पहचान रखता है। यहां का दशहरा एक दिन का नहीं बल्कि सात दिन का त्योहार है। जब देश में लोग दशहरा मना चुके होते हैं तब कुल्लू का दशहरा शुरू होता है। यहां इस त्योहार को दशमी कहते हैं। हिंदी कैलेंडर के अनुसार आश्विन महीने की दसवीं तारीख को इसकी शुरुआत होती है। इसकी एक और खासियत यह है कि जहां सब जगह रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण का पुतला जलाया जाता है, कुल्लू में काम, क्रोध, मोह और अहंकार के नाश के प्रतीक के तौर पर कुछ जानवरों की बलि दी जाती है। कुल्लू में विजयदशमी के पर्व को इस तरह उत्सव मनाने की परंपरा राजा जगत सिंह के राज में 1637 में हुई। फुहारी बाबा के नाम से जाने जाने वाले किशन दास नामक संत ने राजा जगत सिंह को सलाह दी कि कुल्लू में भगवान रघुनाथ जी की प्रतिमा की स्थापना की जाए। उनके आदेश का पालन करते हुए जुलाई 1651 अयोध्या से एक मूर्ति ला कर कुल्लू में रघुनाथ जी की स्थापना की गई। किवदंती है कि राजा जगत सिंह किसी दुस्साध्य रोग से पीडि़त था। इस मूर्ति के चरणामृत सेवन से उसका रोग जाता रहा और धीरे-धीरे वह पूर्ण स्वस्थ हो गया। इसके बाद राजा ने अपना जीवन और राज्य भगवान को अर्पण कर दिया। और इस तरह यहां दशहरे का त्योहार धूमधाम से मनाया जाने लगा। इस उत्सव के पहले दिन दशहरे की देवी मनाली की हिडिंबा कुल्लू आती हैं जो राजघराने की देवी मानी जाती है। इसके उपरांत धालपुर में हिडिंबा का प्रवेश होता है। रथ में रघुनाथ जी की तीन इंच की प्रतिमा को उससे भी छोटी सीता तथा हिडिंबा को बड़ी सुंदरता से सजा कर रखा जाता है। पहाड़ी से माता भेखली का आदेश मिलते ही रथ यात्रा शुरू होती है। रस्सी की सहायता से रथ को इस जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है, जहां यह रथ छह दिन तक ठहरता है। सौ से ज्यादा देवी-देवताओं को रंगबिरंगी सजी हुई पालकियों में बैठाया जाता है। मंडी से कुल्लू जाने वाले हरियाली से घिरे रास्तों पर घर की बुनी सदरी और गोली टोपी से सजे पुरुषों के छोटे-छोटे जलूसों का सौंदर्य देखते ही बनता है। कुछ के हाथ में दांत की बनी गोल तुरही होती है और कुछ नगाड़ों को पीटते चलते हैं। बचे हुए लोग जब साथ में नाचते गाते हुए इस मंडली को संपूर्णता प्रदान करते हैं तो ऐसा लगता है जैसे पहाड़ की घाटी के सन्नाटे में उत्सव का संगीत भर गया हो। पहाड़ के विभिन्न रास्तों से घाटी में आते हुए देवताओं के इस अनुष्ठान को देख कर ऐसा प्रतीत होता है मानो सभी देवी-देवता स्वर्ग का द्वार खोल कर धरती पर आनंदोत्सव मनाने आ रहे हैं। रघुनाथ जी के इस पड़ाव पर उनके आसपास अनगिनत रंगबिरंगी पालकियों का दृश्य बहुत ही अनूठा लेकिन लुभावना होता है। सारी रात लोगों का नाचगाना चलता है। सातवे दिन रथ को व्यास नदी के किनारे ले जाया जाता है जहां कंटीले पेड़ को लंकादहन के रूप में जलाया जाता है। कुछ जानवरों की बलि दी जाती है। इसके बाद रथ वापस अपने स्थान पर लाया जाता है और रघुनाथ जी को रघुनाथपुर के मंदिर में पुर्नस्थापित किया जाता है। इस तरह विश्व विख्यात कुल्लू का दशहरा हर्षोल्लास के साथ संपूर्ण होता है।

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