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धर्मविजय का उत्सव है विजयदशमी
विजयदशमी यह संदेश देती है कि आत्मजयी व्यक्ति ही संसार को जीतने में सक्षम हो सकता है। पहला और प्रमुख पुरुषार्थ स्वविजय ही है। वाह्य विजय तो इसका विस्तार मात्र है। विजयदशमी केवल उन दुष्ट शक्तियों के उन्मूलन का अधिकार देती है जो व्यक्ति को आत्मपरिष्कार से उपजे उदात्त मूल्यों के आधार पर जीवनयापन करने में बाधा पहुंचा रहे होते हैं…
शारदीय नवरात्र शक्ति की आराधना का पर्व है। इसका समापन विजयदशमी के पर्व के साथ होता है। नवरात्र और विजयदशमी एक अटूट संबंध को अभिव्यक्त करते हैं। शक्ति की आराधना धर्मविजय के रूप में फलीभूत होती है और शक्ति का जागरण तभी होता है जब उसका आह्वान धर्म विजय के उद्देश्य को लेकर किया जाता है। शक्ति, धर्म और विजय एक दूसरे के साथ अटूट रूप से जुड़े हुए हैं। इन तीनों का संतुलन सृजनात्मकता और सकारात्मकता को आगे बढ़ाता है। यदि इनका संतुलन धाराशायी होता है और केवल शक्ति तथा विजय की आराधना होती है तो मानव कल्याण कहीं गुम हो जाता है। इसको दूसरे शब्दों में इस रूप में भी कहा जा सकता है कि शक्ति अपने चरम रूप में तभी जागृत और अभिव्यक्त होती है जब वह धर्म के साथ जुड़ती है। धर्म, शक्ति के प्रचंड वेग को उदात्त , निर्मल और संपूर्ण बनाता है। इस स्थिति शक्ति परपीड़क नहीं होती और न ही अन्यरूप में स्थिति शक्तियों को दबाती है। वह दूसरी शक्ति का सम्मान करती है और उसके साथ समन्वय स्थापित कर एक वृहत्तर शक्ति केंद्र की स्थापना करती है। यह त्योहार वर्षा ऋतु के अंत में संपूर्ण भारत वर्ष में मनाया जाता है। इस दिन भगवान राम ने राक्षस रावण का वध कर माता सीता को उसकी कैद से छुड़ाया था। इसके कारण सारा समाज भयमुक्त हुआ था। रावण को मारने से पूर्व श्रीराम ने दुर्गा की आराधना की थी। मां दुर्गा ने उनकी पूजा से प्रसन्न होकर उन्हें विजय का वरदान दिया था। दशहरा अथवा श्रीराम की विजय की स्मृति में मनाया जाए अथवा दुर्गा पूजा के रूप में, दोनों ही रूपों में यह शक्ति पूजा का पर्व है। यह शस्त्र पूजन की तिथि भी है। देश के कोने-कोने में यह विभिन्न रूपों से मनाया जाता है।
मैसूर का दशहराः मैसूर का दशहरा देशभर में विख्यात है। मैसूर में दशहरे के समय पूरे शहर की गलियों को रोशनी से सज्जित किया जाता है और हाथियों का श्रृंगार कर पूरे शहर में एक भव्य जुलूस निकाला जाता है। इस समय प्रसिद्ध मैसूर महल को दीपमालिकाओं से दुल्हन की तरह सजाया जाता है। इसके साथ शहर में लोग टार्च लाइट के संग नृत्य और संगीत की शोभा यात्रा का आनंद लेते हैं।
कुल्लू का दशहरा : कुल्लू में विजयदशमी का उत्सव मनाने की परंपरा राजा जगत सिंह के काल में प्रारंभ हुई। फुहारी बाबा के नाम से प्रसिद्ध किशन दास नामक संत ने राजा जगत सिंह को सलाह दी कि कुल्लू में भगवान रघुनाथ जी की प्रतिमा की स्थापना की जाए। उनके आदेश का पालन करते हुए राजा जगत सिंह ने जुलाई 1651 में अयोध्या से एक रघुनाथ जी की एक मूर्ति मंगवाई और विधि-विधान के साथ उसकी स्थापना की गई।
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