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हिंदी की उपेक्षा क्यों?
केंद्र सरकार ने यूपीएससी की सिविल परीक्षा से सी-सैट को न हटाने तथा पूर्ण निर्धारित समय के अनुसार प्रारंभिक परीक्षा 24 अगस्त को ही करवाने का ऐलान कर हिंदी भाषी छात्रों की उम्मीदों पर कुठाराघात किया है। एक फर्क केवल यह पड़ा है कि अब सी-सैट 2 पेपर में अंग्रेजी के 20 अंक मैरिट में नहीं जोड़े जाएंगे। इसी क्रम में 2011 में परीक्षा देने वाले छात्रों को 2015 में एक मौका देने का फैसला किया गया है। इसका अर्थ यह भी हुआ कि सरकार का निर्णय देर से आने और परीक्षा की तिथि आगे बढ़ाने का नुकसान उन छात्रों को झेलना होगा, जो सी-सैट के विरोध में चलाए जा रहे आंदोलन के कारण तैयारी नहीं कर पाए थे। यहां मौजूदा सरकार के इस तर्क से सहमत हुआ जा सकता है कि उसे यह स्थिति यूपीए सरकार से विरासत में मिली है, लेकिन वह चाहती तो हिंदी भाषी छात्रों की भावनाओं की कद्र करते हुए इस पर सकारात्मक फैसला कर सकती थी। उसने ऐसा नहीं किया, जिसकी खिलाफत होना स्वाभाविक है। आंदोलनकारी छात्र आज भी मांग कर रहे हैं कि सी-सैट को समाप्त कर पुराने पैटर्न को लागू किया जाए, जिससे हिंदी भाषी छात्रों को बराबरी का मौका मिल सके। इस प्रश्न पर संसद के दोनों सदनों में हंगामे के अलावा सभी प्रमुख विपक्षी दल सरकार के विरोध में सामने आए हैं। सरकार के अडि़यल रवैये के कारण जिस तरह यह मुद्दा हिंदी बनाम अंग्रेजी बनाया गया है और उसे लेकर जिस तरीके से अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का प्रश्न भी उठा है, उसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा। पहले तो यही स्पष्ट नहीं है कि जो फार्मूला 2011 तक चलता आ रहा था और जिसका लाभ हिंदी भाषी छात्र ले पा रहे थे, उसे अचानक क्यों बदला गया? क्या यह सब कुछ उन अंग्रेजीदां अफसरशाही के इशारे पर तो नहीं हुआ जो सिविल सेवा में हिंदी भाषी छात्रों के प्रवेश से खार खाए हुए थे। यही कारण है कि 2011 के बाद सिविल सेवा में हिंदी भाषी प्रतियोगियों की आवक न केवल कम हुई, आगे के लिए भी उनका मार्ग अवरुद्ध हो गया। आखिर सरकार यह क्यों नहीं देख पाई कि हिंदी भाषी प्रतियोगियों को सी-सैट के साथ परोसा जाने वाला हिंदी अनुवाद इतना भ्रष्ट था कि वह छात्रों के पल्ले नहीं पड़ा। अब सरकार ने हिंदी में अनुवाद को सुधारने का वादा कर उचित किया है, लेकिन सी-सैट पर उस अनावश्यक विवाद के कारण छात्रों को हुए नुकसान की भरपाई कौन करेगा? प्रश्न यूपीएससी की प्रवेश परीक्षा में हिंदी माध्यम का हो या सरकार के प्रशासनिक कार्यों में हिंदी के अधिकाधिक इस्तेमाल का, उसे लेकर हिंदी की उपेक्षा करना संविधान की भावनाओं का अनादर करना नहीं तो क्या है? हिंदी जिसे अपने ही देश में सिर-आंखों पर बिठाया जाना चाहिए, उसकी इस कद्र दुर्दशा निंदनीय है। अपने ही देश में हिंदी इतनी पराई क्यों है? वैसे तो संविधान द्वारा हिंदी को राष्ट्रभाषा व राजकाज की भाषा का दर्जा दिए जाने के संकल्प के बावजूद हिंदी को आज तक उसका उचित स्थान नहीं मिल पाया है, उस पर हिंदी को भीतर खाते पीछे धकेलने की कोशिश उससे जुड़े संकल्प से मेल नहीं खाती। यूपीएससी परीक्षा से सी-सैट को खत्म न करने का फैसला सरकार ने किसी भी सोच के तहत क्यों न किया हो, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा सरकार की हिंदी के प्रति निष्ठा को देखते हुए उसे इस पर सहानुभूति से पुनर्विचार करना चाहिए
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