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स्वार्थ और सरोकार के एनजीओ
( पीके खुराना लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं )
यह जमाना एनजीओ के फलने-फूलने का है, इसलिए बहुत से एनजीओ सिर्फ कागजी काम करके और अखबारों में खबरें छपवाकर सरकारी ग्रांट हड़प लेते हैं। खासकर सरकारी कर्मचारी और नौकरशाह, जिन्हें इन योजनाओं की जानकारी रहती है, अपनी बीवियों के नाम से एनजीओ चलाकर अपना धंधा चमकाने में लगे रहते हैं या फिर रिटायर हो चुके सरकारी अधिकारी भी बहुत से एनजीओ चला रहे हैं और तगड़ा पैसा कूट रहे हैं। लेकिन बहुत से ऐसे लोग भी हैं, जिनके लिए समाज सेवा एक जज्बा है और वे निःस्वार्थ रूप से अपने काम में जुटे हुए हैं…
एनजीओ (नॉन-गवर्नमेंट आर्गेनाइजेशन यानी गैर सरकारी संस्था) को एनजीओ कहा ही इसलिए जाता है, क्योंकि वह सरकारी संस्था न होते हुए भी ऐसा काम करती है, जिसे सरकार द्वारा किया जाना चाहिए था, पर सरकारें कर नहीं पातीं। यह जमाना एनजीओ के फलने-फूलने का है, इसलिए बहुत से एनजीओ सिर्फ कागजी काम करके और अखबारों में खबरें छपवाकर सरकारी ग्रांट हड़प लेते हैं। खासकर सरकारी कर्मचारी और नौकरशाह, जिन्हें इन योजनाओं की जानकारी रहती है, अपनी बीवियों के नाम से एनजीओ चलाकर अपना धंधा चमकाने में लगे रहते हैं, या फिर रिटायर हो चुके सरकारी अधिकारी भी बहुत से एनजीओ चला रहे हैं और तगड़ा पैसा कूट रहे हैं। लेकिन बहुत से ऐसे लोग भी हैं, जिनके लिए समाज सेवा एक जज्बा है, पैशन है और वे निःस्वार्थ रूप से अपने काम में जुटे हुए हैं।
बीबीसी की संवाददाता शिल्पा कन्नन ने अपने एक समाचार में ‘सोसायटी फॉर चाइल्ड डिवेलपमेंट’ का जिक्र करते हुए बताया है कि इस संस्था के सदस्य दिल्ली के होटलों और मंदिरों से टनों की मात्रा में फेंक दिए गए फूल चुनते हैं, ताकि वे इनसे प्राकृतिक रंग बना सकें जो मानवीय त्वचा के लिए नुकसानदेह नहीं हैं। इन रंगों का इस्तेमाल बहुत से पर्व-त्योहारों में होता है। दूसरी बड़ी बात यह है कि इस काम में लगे इसके सदस्य नेत्रहीन हैं। ये खुद रंग-बिरंगे फूलों और इनसे बने रंगों को नहीं देख सकते, पर इस तरह से वे न केवल शहर से कचरे की सफाई कर रहे हैं, समाज को हानिरहित रंग देकर समाज सेवा कर रहे हैं। इसके साथ ही वालमार्ट जैसी बड़ी व्यापारिक संस्थाओं को ये रंग बेच कर न केवल खुद लाभ कमा रहे हैं, बल्कि वालमार्ट का व्यवसाय बढ़ाने में भी सहयोग दे रहे हैं। इस काम में वालमार्ट उन्हें कोई आर्थिक सहायता नहीं देती, पर वे उनका कारोबार खड़ा करने में अपनी विशेषज्ञता की मदद दे रहे हैं। कचरे को उपभोक्ता वस्तु में बदलने की चैरिटी का कारोबार करने वाली इस गैर सरकारी संगठन की निदेशक मधुमिता पुरी का कहना है कि हम गरीबी के खिलाफ लड़ रहे हैं, लेकिन गरीबी हमारी पीढ़ी के सामने मौजूद सबसे बड़ा अनसुलझा मसला है। भलाई का काम मसले का हल नहीं है। हम अपना सामान बेचने के लिए उपयुक्त बाजार तलाश रहे हैं। नेत्रहीन और दिमाग से कमजोर लोगों को जिंदगी में कुछ कर सकने की काबिलीयत सिखाने के लिए हम कारपोरेटस और बड़े कारोबारियों से मदद मांगते हैं। इस साल हमने बेकार छोड़ दिए गए फूलों से 18 टन रंग बनाए थे और अब हम बेकार फेंके गए कपड़ों से लैंप बना रहे हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत के 80 फीसदी लोग साल में कम से कम एक बार चंदा जरूर देते हैं। भारतीय लोग विकलांग, बेघर, बूढ़ों और पढ़ाई-लिखाई के नाम पर पैसा देने से गुरेज नहीं करते हैं। गैर सरकारी संगठन ‘गूंज’ के अंशुल गुप्ता कहते हैं कि भारत में समस्याएं इतनी बड़ी हैं कि केवल आर्थिक विकास से चीजें सुलझने वाली नहीं हैं।
समाज सेवा की अपनी अहमियत है। समाज सेवा के कारोबार में उनके संगठन ने खूब तरक्की की है। जम्मू-कश्मीर के बाढ़ पीडि़तों के लिए ‘गूंज’, ‘बुलंदी’ और ‘केयर इंडिया’ ने हाल ही में चंदा जमा करने की बड़ी मुहिम चलाई थी। समाज सेवा के काम को नई दिशा देते हुए सरकार ने भी भारतीय कंपनियों को अपने मुनाफे का दो फीसदी समाज की भलाई के लिए खर्च करने के लिए कहा है। नए नियमों के तहत 500 करोड़ रुपए से बड़ी पूंजी वाली कंपनियों को अपने मुनाफे का दो फीसदी सामाजिक कार्यों के लिए खर्च करना होगा। माना जा रहा है कि तकरीबन 12 हजार कंपनियां इस दायरे में आ जाएंगी। केंद्रीय वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण ने चेतावनी भी दी है कि सरकार कंपनियों पर नजर रखेगी कि वे अपना पैसा सार्थक परियोजनाओं में खर्च करती हैं या नहीं। अभी दिवाली के समय मेरे मित्र एवं ग्रेवाल आई इंस्टीच्यूट के सीईओ ने एक बड़ा पुण्य का काम किया।
एनजीओ राउंड टेबल इंडिया और माई एफएम 93.4 के सहयोग से उन्होंने दिवाली पर एक अभिनव अभियान चला कर दिवाली के समय ट्राइसिटी चंडीगढ़ के लोगों से 900 रुपए की कीमत का एक विशेष दीया खरीदने की अपील की। इस तरह इकट्ठा होने वाले धन से उन्होंने अपनी आंखें खो चुके 18 वर्षीय किशोर विनोद की आंखों का आपरेशन करके उसे दोबारा देखने के काबिल बनाने का बीड़ा उठाया। माई एफएम ने इस अभियान का जमकर प्रचार किया। अभियान चलाने से पहले डा. ग्रेवाल और माई एफएम को उम्मीद थी कि वे लोगों को प्रेरित करके किसी न किसी तरह लगभग एक लाख रुपया इकट्ठा कर लेंगे और जबकि ग्रेवाल आई इंस्टीच्यूट ने आपरेशन पर खर्च होने वाली शेष राशि खुद देने का वादा किया। विनोद की दोनों आंखें बचपन से ही जाती रही थीं और इनको दोबारा देखने के काबिल बनाने के लिए आपरेशन के अलावा आने वाले कई वर्षों तक रिहेबिलिटेशन का काम करना होगा। ग्रेवाल आई इंस्टीच्यूट ने इस महत्ती जिम्मेदारी को संभाला है। विनोद के पिता रिक्शा चलाते हैं और उनके पास विनोद के आपरेशन के लिए आवश्यक आर्थिक साधन नहीं थे। बड़ी बात यह है कि इस अभियान में एक लाख रुपए की जगह तीन लाख रुपए से भी ज्यादा धन इकट्ठा हो गया और वह भी तब जब माई एफएम और ग्रेवाल आई इंस्टीच्यूट ने कई दानकर्ताओं से पैसे लेने से मना कर दिया, क्योंकि उनकी आवश्यकता से अधिक धन पहले ही इकट्ठा हो चुका था। एक सज्जन तो अपनी ओर से ब्लैंक चेक देने को तैयार हो गए, ताकि विनोद की आंखें दोबारा वापस आ सकें।
अब माई एफएम तथा ग्रेवाल आई इंस्टीच्यूट ने इकट्ठा हुए अतिरिक्त धन को और कई बच्चों के आपरेशन के लिए उपयोग करना आरंभ कर दिया है और ग्रेवाल आई इंस्टीच्यूट ने एक कदम और आगे बढ़ कर जन्म से सफेद मोतिया की शिकार दो साल की एक छोटी-सी बच्ची की आंख का सफल आपरेशन किया है, जो विश्व में अपनी तरह का तीसरा आपरेशन है। ग्रेवाल आई इंस्टीच्यूट द्वारा संचालित एनजीओ ‘रोशनी’ के डाक्टरों की पूरी टीम गांव-गांव जाकर पंचायतों, गुरुद्वारों, मंदिरों, लायंस क्लब, रोटरी क्लब और ऐसी अन्य सामाजिक संस्थाओं के साथ मिलकर लगातार आई चैकअप कैंप लगाती रहती है और गरीबों-मजदूरों-वंचितों को साधनहीनता के कारण आंखों से न जाना पड़े। यह खुशी की बात है कि समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो बिना किसी प्रचार की आशा के भलाई के कामों में लगे रहते हैं। अब एनजीओ ‘बुलंदी’ ने इसे एक सुशासित, सुसंचालित, संगठित अभियान बनाने की योजना पर काम करना आरंभ कर दिया है, ताकि समाज का समग्र विकास संभव हो सके। ‘बुलंदी’ से ‘बुलंदी.ओआरजी(ऐट)जीमेल.कॉम’ पर संपर्क किया जा सकता है। कारपोरेट सेक्टर ही नहीं, समाज का हर साधन संपन्न व्यक्ति इस अभियान का हिस्सा बन सकता है। यह निश्चय ही एक प्रशंसनीय शुरुआत है।
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