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राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में अभी भी किंतु-परंतु
राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में हिमाचल की पहाड़ी भाषा को जहां 8वीं अनुसूची में दर्जा नहीं मिल पाया है, वहीं पहाड़ी प्रदेश की कोई एक ऐसी बोली सर्वमान्य नहीं बन सकी है, जिस पर हिमाचल पंजाब व हरियाणा की तरह इतरा सके। हिमाचल के राजनेताओं ने हालांकि पहाड़ी व भोटी भाषा को 8वीं अनुसूची में दर्ज करवाने के लिए कदमताल तो की, मगर प्रदेश की ऐसी एक कौन सी बोली हो, जो सर्वमान्य बन सके, इस दिशा में प्रयास नहीं किए गए। यहां तक कि संबंधित सरकारी एजेंसियों का भी योगदान शून्य ही रहा। दरअसल हिमाचल छोटी-बड़ी रियासतों से बना राज्य है। शिमला से लेकर ऊना, कांगड़ा और हमीरपुर तक के हिस्से पंजाब का अंग रहे। इन इलाकों में आज भी भले ही अपनी-अपनी पहाड़ी बोलियां प्रचलित हैं, मगर उनमें पंजाबी टच है। मिसाल के तौर पर हमीरपुर, ऊना, बिलासपुर में पंजाबी के शब्द घुल-मिल चुके हैं। बिलासपुर, मंडी, कांगड़ा, हमीरपुर व चंबा की बोली में कोई ज्यादा अंतर नहीं है। कुछ शब्दों को छोड़कर भाषा लगभग समान है। सोलन की भाषा को भी प्रदेश का कोई भी वासी सरलता से समझ सकता है, मगर महासू व सिरमौर की बोली में अंतर है। कुल्लू, लाहुल-स्पीति व किन्नौर में भी यही आलम है। यहां की बोली एकदम भिन्न हैं। जानकारों के मुताबिक बोलियों में यह अंतर रियासत काल से ही हावी रहा। हर रियासत की अपनी बोली तय थी। रियासतों को मिलाकर बने पहाड़ी प्रदेश में अब एक भाषा तय करने में दिक्कतें पेश आ रही हैं। हालांकि यदि इस दिशा में प्रयास होते तो जम्मू की डोगरी की तरह हिमाचल भी अपनी एक भाषा पर मान कर सकता था, मगर किसी भी राजनेता या विद्वान ने इस दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाए। हिमाचल का गठन भी अन्य राज्यों के वनिस्बत काफी देरी से हुआ। लिहाजा भाषा संबंधी दिक्कतें अभी भी मुंह बाए खड़ी हैं।
* पहाड़ी भाषा को 8वीं अनुसूची में दर्जा नहीं
* पंजाब में पंजाबी, हरियाणा में हरियाणवी
* हिमाचल में मिश्रित भाषा का बोलबाला
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