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Devender thakur
हमें कब मिलेगी हिमाचली भाषा
पहाड़ी प्रदेश ने वक्त के साथ तरक्की तो की, पर खुद की भाषा के प्रयास वीरानियों के खंडहर में समाते चले गए। 70 से ज्यादा बोलियों वाले प्रदेश में कभी भी अपनी भाषा को दर्जा दिलाने की कोशिशें नहीं हुईं । आज पंजाब-हरियाणा, यहां तक कि जम्मू-कश्मीर की भी अपनी भाषा है, पर हिमाचल आज भी उस वाणी की तलाश में हैं, जिस पर पहाड़ी मानुष इतरा सके….
भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के अनुसार सन् 1966 में पंजाब के कुछ क्षेत्रों का, जिनमें कांगड़ा भी था, विलय हिमाचल में हो गया… उस हिमाचल में जिसे पता नहीं कब, किसने और क्यों हिंदी भाषी घोषित कर दिया था, जबकि यहां अलग-अलग क्षेत्रों में हिंदी, डोगरी, पंजाबी, चंबयाली, मंडयाली, कुल्लवी, लाहुली, सिरमौरी आदि अनेक बोलियां बोली जाती थीं अर्थात यह मूलतः अहिंदी भाषी प्रांत था। हिमाचल में संभवतः हिंदी को सन् 1975 में प्रदेश की राजभाषा घोषित किया गया। वस्तुतः भाषा की दृष्टि से हिमाचल की स्थिति त्रिशंकु रही है। राजनेताओं की अस्पष्टता उनकी उदासीनता का कारण सही जान पड़ता है। साहित्यकारों का ढुलमुल रवैया हिमाचली भाषा को डुबोने में ंप्रमुख कारण रहा है। वे गुलगुले खाने के लिए कभी हिंदी की ओर दौड़ते रहे हैं और कभी पहाड़ी (हिमाचली) की ओर, लेकिन रचनात्मक स्तर पर पहाड़ी (हिमाचली) में डट कर लेखकों ने लिखा हो, उपलब्ध सामग्री इस की साक्षी नहीं। एक कारण जो मैं मानता हूं हिमाचली को मान्यतः न मिलने का… वह है प्रतिबद्धता एवं जुनून की कमी। हिमाचल साहित्य अकादमी की स्थापना 1970-71 में हुई, लेकिन क्योंकि अकादमी को स्वायत्तता नहीं थी, यह भाषा एवं संस्कृति विभाग की अनलग्नक बनकर रह गई। न तो प्रकाशन में, न पुस्तक-खरीद में, न पुरस्कारों के नियोजन-संयोजन में कोई ठोस भूमिका अदा कर पाई। इतना अवश्क है कि स्व. लाल चंद प्रार्थी एवं स्व. नारायण चंद पराशर के समय में इसकी गतिविधियां अवश्य तेज रहीं, परंतु उसमें अधिक लाभ इर्द-गिर्दिए ही उठाते रहे… पहाड़ी (हिमाचली) या हिंदी… आदि के लिए विलक्षण या अद्भुत कुछ नहीं हुआ। अकादमी के पुनरुद्धार, सुधार एवं शुद्धिकरण की आवश्यकता है। बोलियों से भाषाओं का विकास इच्छाशक्ति, भरपूर रचनात्मकता, अनुवाद आदि अनेक अंगों पर ध्यान देने से होता है केवल घोषणाओं से नहीं। अब कुछ वर्षों से कुछ लेखकों ने इसे आठवें शेड्यूल में सम्मिलित करने की मांग को बड़े जोर से उठाया, अच्छी बात है, लेकिन इस मांग या नारे से हिमाचल के लेखकों को दिलवाया क्या है? अपने लिए तो आज तक सभी डुगडुगी बजाते आए हैं। हिमाचल को हिंदी भाषी घोषित करना ‘हिमाचली भाषा’ की भ्रूण हत्या करने के समतुल्य रहा। बोल पहाड़ी या पंजाबी रहे थे और जनगणना में हम सगर्व कह रहे थे— अहां दी मातरी भाषा तां हिंदी है (इसमें भी बोली की वेरिएशन हो सकती है) तथा पंजाबी भाषी कह रहे थे— साडी मातृभाषा तां हिंदी है जी… इन कथनों के कारण हिमाचली भाषा जन्म से पूर्व ही दुत्कार दी गई। फिर राजनेताओं का पर्वतीय क्षेत्रों को हिमाचल में मिलवाने के लिए हिंदी को प्रदेश की भाषा स्वीकार करना घातक सिद्ध हुआ। न कभी केंद्रीय हिंदी निदेशालय से कभी कुछ साहित्यकारों को मिला और न ही नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया की बाउंटी का फायदा हुआ… और साहित्य अकादमी तो दूर की कौड़ी है। रंक ही रह गए यहां के लेखक। जहां तक केंद्रीय सरकारी सुविधाओं, प्रोत्साहन आदि का प्रश्न है… हिमाचल में साहित्य का स्टेट अवार्ड दस हजार से शुरू हुआ और अभी 50 हजार तक पहुंचा है, जबकि अहिंदी भाषी हिंदी लेखकों को कम से कम एक-एक लाख का पुरस्कार तो चलते-फिरते मिल जाता है। राजनेताओं की स्वार्थपरता या कहें अदूरदर्शिता न केवल भाषा गत गौरव से वंचित रखने के लिए उत्तरदायी होती है, बल्कि विपुल साहित्य रचना के लिए भी कोई प्रोत्साहन नहीं छोड़ती। प्रदेश की अस्मिता हिमाचली भाषा के अस्तित्व को स्वीकार करने में है, परंतु संवैधानिक आशीर्वाद न होने के कारण यह अधर में लटकी हुई है। इसका कोई स्पष्ट मुंह-माथा नहीं, कोई रूप-कुरूप नहीं, क्योंकि हिमाचल में अनेक बोलियां बोली जाती हैं, परंतु बोलियां ही अंततः भाषा का परिनिष्ठित रूप समादृत करती हैं…। इंग्लैंड में अंगे्रजी को भाषा के रूप में समादृत होने में लगभग चार सौ वर्ष लगे। पंजाब में भी पंजाबी रातोंरात में भाषा नहीं बन गई। साहित्यकार ही भाषा को स्थापित करते हैं, सरकारें सहायक हो सकती हैं। भाषा एवं संस्कृति विभाग सुविधाएं प्रदान कर सकता है, अकादमी प्रोत्साहन दे सकती है, लेखकों की अंगुली पकड़ कर लिखवा नहीं सकती और अभी तक हिमाचली अनरैक्नाइज्ड भाषा के रूप में पहचानी जाती है। तो क्या किया जाए? अब तक जो अन्याय हिमाचली भाषा के साथ हुआ है, उसके बदले में दस गुना आर्थिक अनुदान हिमाचली भाषा एवं साहित्य के लिए प्रदान किया जाए, तभी कोई पहचान अखिल भारतीय साहित्य में बन पाएगी, नहीं तो हम साहित्य में भी ‘मुंडू’ ही बने रह जाएंगे, जैसा अब भी बाहर के प्रदेशों से आने वाले तथाकथित विद्वान एवं लेखक समझते रहे हैं, जबकि हिंदी एवं हिमाचली में रचित साहित्य गुणवत्ता की दृष्टि से निश्चित रूप से श्रेष्ठ है, परंतु अब तक की परिस्थितियों, ऐतिहासिक परिदृश्य के अनुसार तो त्रिशंकु की स्थिति रहीं… न माया मिली, न राम।
* 70 से अधिक बोलियां बोली जाती हैं हिमाचल में
* 10 किलोमीटर के बाद जुबान में बदलाव
कहां, कौन सी बोली
सिरमौरः सिरमौरी, जौनसारी, धाटी, निश्वर
सोलनः महासुवी, हांडुरी, बघाटी, क्योथल
मंडीः सुकेती, मंडयाली, बाल्दी, सरघाटी
कुल्लूः कुल्लवी, सैजी, मलाणा
लाहुल-स्पीतिः तिब्बती, गैहरी, झाघसा, गारा, रंगलोई
चंबाः चंबियाली, बरयाती, चुराई, भरमौरी
हमीरपुरः कांगड़ी
बिलासपुरः कहलूरी, बिलासपुरी
ऊनाः कांगड़ी, पंजाबी
कांगड़ाः कांगड़ी, पालमपुरी, शिवालिक
शिमलाः महासुवी, हांडुरी
95 फीसदी बोल रहे पहाड़ी
हिमाचल की भाषा राजनेताओं के दांव पेंच में उलझकर रह गई है। तभी तो आज तक हिमाचली भाषा को दर्जा नहीं मिला। प्रदेश में वर्तमान समय में 70 से अधिक बोलियां ऐसी हैं, जिनका प्रचलन बहुत अधिक है। प्रदेश में 95 प्रतिशत पहाड़ी भाषा बोली जाती है, जबकि पांच प्रतिशत पंजाबी भाषा का प्रयोग लोग करते हैं। फिर भी राजनेता पहाड़ी भाषा को मान्यता नहीं दिलवा पाए। टांकरी लिपि के रूप में अभिव्यक्त होने वाली हिमाचली भाषा सदियों से पहाड़ी राज्यों में दैनिक व्यवहार व साहित्य के रूप में प्रयोग की जाती है। एक सर्वे के मुताबिक हर 10 किलोमीटर के बाद बोली में अंतर पाया गया है।
असंभव कुछ भी नहीं
सांसद अनुराग ठाकुर का कहना है कि हिमाचल के कई क्षेत्र लंबे समय तक पंजाब का हिस्सा रहे। वहां के लोकल डायलेक्ट्स आज भी यहां की बोलियों पर हावी हैं। सिरमौर की महासू की अलग बोलियां हैं। जबकि मंडी, बिलासपुर, हमीरपुर व कांगड़ा में लगभग समानता है। हिमाचल का गठन भी देरी से हुआ। यही वजह रही कि दिक्कतें आईं। असंभव कुछ भी नहीं है। ठोस प्रयास किए जा सकते हैं।
सामूहिक प्रयास लाएंगे रंग
लोकसभा सांसद वीरेंद्र कश्यप का कहना है कि प्रदेश की अलग-अलग बोलियों को एक सूत्र में पिरोने के लिए लंबी जद्दोजहद करनी होगी। पहाड़ी व भोटी भाषा को 8वीं अनुसूची में दर्ज करवाने के लिए लोकसभा में प्रयास किया गया। यह मुद्दा बार-बार उठाया गया। यदि पहाड़ी भाषा हिमाचल की पहचान बने तो यह अच्छा प्रयास होगा। इस दिशा में सामूहिक प्रयास रंग ला सकते हैं।
केंद्र से उठाएंगे मसला
सांसद प्रतिभा सिंह का कहना है कि हिमाचली भाषा को बनाने के लिए अब तक सही मायने में जमीनी स्तर पर प्रयास नाकाफी साबित हुए हैं। ऐसा नहीं है कि इसके लिए प्रयास किए नहीं गए। साहित्यकारों और विभिन्न संगठनों ने इसके लिए समय-समय पर आवाज बुलंद की है, लेकिन इसमें कामयाबी नहीं मिल पाई है। हिमाचली भाषा को भी देश की अन्य भाषाओं की तर्ज पर सम्मान और दर्जा दिलाने के लिए आवाज बुलंद की जाएगी। साहित्यकारों के साथ मिल कर इस दिशा में गंभीरता से प्रयास किए जाएंगे।
सकारात्मक प्रयास करेंगे
भाजपा नेता शांता कुमार का कहना है कि देश के गरीब को दो वक्त की रोटी का जुगाड़ और बेरोजगारी समाप्त करने के अलावा बुनियादी सुविधाएं जुटाने के बाद ही इस बारे में सोचा जाएगा। देश की बुनियादी जरूरतें पूरी करने के बाद इस दिशा में सकारात्मक प्रयास किए जाएंगे। उन्होंने दोहराया कि इस बारे में सोचा जाएगा। हिंदी हमारी राष्ट्रीय भाषा है। इसलिए अन्याय वाली कोई बात नहीं।
पहाड़ी भाषा बनना मुश्किल नहीं
पहाड़ी गायक कुलदीप शर्मा कहते हैं कि अगर राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली राजनेता अधिक प्रयास करते तो हिमाचली भाषा बनाने में जरूर सफल होते। हिमाचली भाषा बनाना इतना मुश्किल नहीं है। यदि सरकार भरपूर प्रयास करती है तो हिमाचली भाषा को जरूर दर्जा मिलेगा।
चिंतन करें विचारक
नामी लोकगायक अछर सिंह परमार कहते हैं कि प्रदेश में विभिन्न बोलियां बोली जाती हैं, जिसमें एक क्षेत्र की बोली दूसरे क्षेत्र को समझ नहीं आती। इस कारण हिमाचली भाषा नहीं बन पाई। यदि हिमाचली भाषा का समग्र रूप तैयार करना है तो विचारकों को चिंतन करना चाहिए और इस ओर भरपूर प्रयास करने होंगे
जिला भाषाओं से मिली असफलता
साहित्यकार कृष्ण कुमार नूतन का मानना है कि हिमाचली भाषा बनाने में हम जिला भाषाओं की उलझन के कारण असफल हुए हैं। इसके लिए प्रदेश सरकार को केंद्र सरकार तक इस पहाड़ी भाषा में छपे साहित्य के माध्यम से इसे भारतीय भाषाओं की सूची में डलवाने का प्रयत्न करना चाहिए।
8वीं सूची में शामिल होना जरूरी
साहित्यकार डा. गौतम व्यथित कहते हैं कि पहाड़ी भाषा को अभी तक आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं किया गया है, जिससे हिमाचली भाषा का विकास नहीं हो पाया। इस विषय में राजनीतिज्ञों की अनदेखी इसमें बड़ी बाधा बनी रही है। पहाड़ी भाषा को केंद्र में पहचान दिलाने के लिए पिछले कई वर्षों से लगातार प्रस्ताव पारित करके केंद्र में भेजे जा रहे हैं, लेकिन कोई फायदा नहीं हो रहा है। हिमाचल साहित्य अकादमी को साहित्यकारों को पदाधिकारी बनाया जाना चाहिए और आर्थिक दशा सुदृढ़ की जानी चाहिए।
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