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बेजुबानों पर कलियुगी इनसानों का प्रहार
(मेघ सिंह कश्यप लेखक, भुंतर, कुल्लू से हैं।)
अब तो हिमाचल को देवभूमि कहते हुए भी झिझक होती है। जिस गाय को माता कहा जाता है, वह मरने के लिए छोड़ दी जाती है। मनुष्य अपने आप को सब प्राणियों में श्रेष्ठ समझता है, पर आजकल हो रही वारदातों को देखते हुए तो यही लगता है कि मनुष्य अब सबसे ज्यादा गिर गया है…
जिला कुल्लू के प्रवेश द्वार भुंतर से सटे जिया गांव के थाच नामक टापूनुमा स्थान पर लगभग 60 गउओं के भूख के कारण तड़प-तड़प कर दर्दनाक मौत की खबर ने दिल दहला दिया। इस दिल दहला देने वाली दर्दनाक घटना ने एक बार फिर से देवभूमि को भी शर्मसार किया है। क्योंकि यह घटना देवों के देव बिजली माहदेव के चरणों के समीप व पार्वती नदी के साथ की है। लोगों ने अपनी फसलों को बचाने के लिए इन बेजुबान पशुओं को एक ऐसे स्थान पर छोड़ दिया था, जहां से आने-जाने का मात्र एक ही रास्ता था। उस रास्ते को एक पिल्लर लगा कर बंद कर दिया था, ताकि कोई पशु अपने स्थान को वापस न आ सके। अगर कोई बेजुबान पशु आने की कोशिश करते तो रास्ते में लगे पिल्लर से टकराने से फिसल कर पहाड़ी से गिरकर मौत के आगोश में समा जाते, जो पशु उस टापूनुमा स्थान पर रह गए उन्हें मौसम की बेरुखी और घास की कमी मार गई। गांव के बाशिंदों ने तो अपनी फसल बचाने के लिए उन पशुओं को एकांत स्थान पर छोड़ दिया था। लेकिन उसका परिणाम भयानक और दर्दनाक रहा, इस घटना के सबसे ज्यादा दोषी तो वे लोग हैं, जिन्होंने गौ माता का दूध पीकर उन्हें आवारा छोड़ दिया है। प्रशासन को इस मामले में सभी पहलुओं को केंद्र में रख कर उचित कार्रवाई करनी चाहिए। बेजुबान पशुओं पर जुल्म ढहाने वालों को न वख्शा जाए। क्योंकि मामला पशु क्रूरता अधिनियम के तहत बनता है। हिमाचल प्रदेश के किसी भी कोने में चले जाओ, आवारा पशुओं का कहर तो हर गांव तथा शहर में है। गांव में ये पशु किसानों के खेत- खलिहानों में लगी फसलों को तहस-नहस व तबाह कर देते हैं तथा शहर में चलते-फिरते राहगीरों, दुकानदारों और सड़क पर चलने वाली गाडि़यों को भी आवारा पशुओं का शिकार होना पड़ता है, लेकिन ये बेजुबान व लाचार पशु कहां जाएं। यह तो उन एहसान फरामोश व घटिया लोगों की सोच का परिणाम है, जो गौ माता का दूध पी कर और बैलों को हल जोतने के बाद तथा घोड़ों और गधों से भार ढोने का काम लेने के बाद, जब ये बेजुबान पशु किसी भी काम के नहीं रहते, तो इन्हें राम भरोसे आवारा छोड़ देते हैं। फिर बेजुबान पशु अपना पेट कैसे भी भरें। किसान कड़ी मेहनत मजदूरी करके खेतों में फसल तैयार करते हैं, लेकिन जब आवारा पशुओं का हमला लहलहाते खेतों पर होता है, तो पूरी की पूरी फसल तबाह कर देते हैं। तब किसानों की मेहनत पर पानी फिर जाता है और इस महंगाई के जमाने में फसल तबाह होने से पारिवारिक बजट गड़बड़ा जाता है। आखिर पशुओं का आतंक फैलाने वाले भी इसी समाज के लोग हैं, जो इन्हें इस्तेमाल कर आवारा छोड़ देते हैं। अपनी-अपनी फसल का बचाव करने के लिए लोग इन पशुओं का स्थानांतरण इधर-उधर करते हैं। पशु बेजुबान जरूर हैं, लेकिन अपना स्थान नहीं भूलते। इन्हें जहां मर्जी छोड़ दें, ये अपने स्थान पर दोबारा पहुंच जाते हैं। गैर सरकारी संगठनों द्वारा पशुओं की देखरेख के लिए कुछ गौ सदन भी बनाए गए, लेकिन गौसदन योजना भी अब लगभग हांफती हुई नजर आ रही है। जब ये आवारा पशु किसी का नुकसान करते हैं, तो गुस्से में कलियुगी इनसान बेजुबान पशु पर इतनी निर्दयता के साथ प्रहार करता है कि किसी पशु की टांग टूटी होती है और किसी का पूरा शरीर लहूलुहान देखने को मिलता है। जिला मंडी के जोगिंद्रनगर में हाल ही की एक घटना है। भारतीय डाक व तारघर के एक कर्मचारी ने शराब के नशे में धुत्त होकर एक गाय को बहुत ही बेरहमी से पीट कर लहूलुहान कर दिया, लेकिन प्रशासन ने उसके ऊपर कोई कार्रवाई अमल में नहीं लाई। इसी तरह बेजुबान पशुओं पर असामाजिक तत्त्व न जाने कब तक जुल्म ढहाते रहेंगे। प्रदेश सरकार को पशु संरक्षण के लिए गहरा चिंतन कर पशुओं का पंजीकरण सख्ती से लागू करना चाहिए और जो भी बेजुबान पशुओं को आवारा छोड़ता पकड़ा जाए, उसके ऊपर कानूनी कार्रवाई अमल में लाई जाए। अब तो हिमाचल को देवभूमि कहते हुए भी झिझक होती है। जिस गाय को माता कहा जाता है, वह मरने के लिए छोड़ दी जाती है। मनुष्य अपने आप को सब प्राणियों में श्रेष्ठ समझता है, पर आजकल हो रही वारदातों को देखते हुए तो यही लगता है कि मनुष्य अब सबसे ज्यादा गिर गया है। यानी अब वह मनुष्य कहलाने लायक ही नहीं है।
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