Monday, 12 May 2014

पहाड़ी समाज में देव व गूर परंपरा

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पहाड़ी समाज में देव व गूर परंपरा

(घनश्याम गुप्ता, बिलासपुर)
हिमाचली समाज का अभिन्न अंग है यहां की देव संस्कृति। मंडी, कुल्लू व किन्नौर जनपदों में सैकड़ों देवी-देवीताओं के परिवारों के अथवा राजघरानों के कुलदेव हैं। प्राचीन किलों की रक्षा का काम भी ये देवशक्तियां करती थीं। इसलिए इनके मंदिर किले के अंदर बनाए जाते थे। कोट कहलूर किले में आज भी नयना देवी तो कुल्लू के नग्गर कै सल के सामने नारसिंह देव की पूजा होती है। विलासपुर नगर में बाबा नाहरसिंह जनपद की रक्षा करते हैं। सकिंरठी गांव में चंदेल राज परिवार की कुल देवी का मंदिर है। मलौण दुर्ग बिलासपुर की सीमा पार तथा दुर्गों में भी देवी मंदिर हुआ करते थे। कुछ देवताओं के रथ व मोहरे बने होते हैं। ये देव महाभारत काल के बाद के हैं। किसी विशेष अवसर पर ये रथ अपने क्षेत्र की परिक्रमा भी करते हैं। कुछ रथ विशेष मेलों में आते हैं। शिवरात्रि मंडी मेले में कमरूनाग का पंखा व गूर धर्मदत टारना मंदिर में रुकते हैं। सैकड़ों गूर व कारदार इन मेलों में देवता के साथ आते हैं। आज भी मनाली की हिडिंबा के नाम जंगल है। चंडिका, मगरू महादेव, माहूनाग व शेषनाग बड़े धनी देवता हैं। इनके पास करोड़ों रुपए का सोना चांदी है। लाहुल-स्पीती के छेपन देव अपने क्षेत्र की परिक्रमा पर निकलते हैं। देव गूर की चयन प्रक्रिया भी अलग-अलग है। जब गूर बूढ़ा, शक्तिविहीन व मृत्यु को प्राप्त होता है, तब नए गूर की खोज होती है। हिमाचल की संस्कृति प्राचीन होने के साथ-साथ अमूल्य भी है। कुछ इलाकों में आज भी देव परंपरा कानून से भी ऊपर है।

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