Thursday, 1 May 2014

गाय के रूप में देश का आधे से अधिक पशुधन छोटे किसानों के पास है,

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वोट नहीं विकास का पर्याय है गौवंश

( राजेंद्र गुप्त लेखक, एज ऑफ एनलाइटेनमेंट न्यूज सर्विस के संपादक हैं )
गाय के रूप में देश का आधे से अधिक पशुधन छोटे किसानों के पास है, लेकिन जैसे-जैसे संगठित क्षेत्र इसमें कूद रहा है, भैंस की दुग्ध उत्पादकता अधिक होने के कारण ‘काउ बैल्ट’ में भी भैंस को प्राथमिकता मिलनी प्रारंभ हो गई है। मजाक में यहां तक कहा जाना लगा है कि वह दिन दूर नहीं, जब गोभूमि महिश भूमि कही जाने लगे। इसकी वजह यह है कि दोगुनी संख्या होने के बावजूद कुल दुग्ध उत्पादन में गाय की साझेदारी 43 प्रतिशत है। जहां तक गाय के दूध और घी की बात है, उसकी गुणवत्ता का कोई सानी नहीं है। गाय के दूध को मां के दूध से श्रेष्ठ कहा गया है और पोषकता की दृष्टि से संपूर्ण आहार …
जब भी लोकसभा के चुनाव होते है और देश की बागडोर कौन संभालेगा, इसकी बात आती है, तो पहला प्रश्न यही आता है कि सीटों की होड़ में किस राजनीतिक दल का ‘काऊ बैल्ट’ में पलड़ा भारी है। ‘काऊ बैल्ट’ अर्थात उत्तर भारत का वह मैदानी क्षेत्र जहां से होकर गंगा-यमुना बहती हैं। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश से बिहार तक फैली ऐसी उपजाऊ भूमि जहां कभी न पानी का अभाव हुआ करता था और न चारे और चरागाहों का। जहां गाय कृषि प्रधान भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ रही है। यह तो वैदिक समाज का जीवन के प्रति दृष्टिकोण है कि उससे यदि किसी से कुछ मिला, तो उसके प्रति कृतज्ञ हो गया। गंगा और गाय मां तथा देवियां बन गईं व सर्वाधिक आक्सीजन देने वाला बरगद का वृक्ष ब्रह्म। चेतन तो चेतन, जड़ भी पूज्य हो गए, धर्म हो गए, लेकिन दुनिया के प्राचीनतम वैदिक धर्म का यह उदात्त भाव जब राजनीतिक स्वार्थ के थपेड़ों से टकराता है, तो लहूलुहान हो जाता है। उसे दोनों ओर से ठोकर मिलती है, जो उसकी अनदेखी करता है या जो उसकी तरफदारी करता है। पिछले दिनों जब रायटर एजेंसी से खबर आई थी कि भारत ब्राजील के बाद दुनिया का सबसे बड़ा पशु मांस निर्यातक देश बन गया है, तो किसी से भी नहीं रहा गया। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने ‘काऊ बैल्ट’ की ही सरजमीं उत्तर प्रदेश और बिहार की चुनावी सभाओं में कांग्रेस को श्वेत (व्हाइट) क्रांति की बजाय गुलाबी (पिंक) क्रांति की पक्षधर बताकर शब्दों के स्तर पर तल्खी दिखाई, वहीं यूपीए सरकार में केंद्रीय मंत्री आनंद शर्मा ने यह कहकर कि यदि मवेशियों के वध पर अंकुश लगाया गया, तो न केवल देश अनुत्पादक मवेशियों के बोझ तले दब जाएगा, बल्कि ऐसे किसी कदम से लाखों लोग बेरोजगार हो जाएंगे, जैसा नरम बचाव किया। संविधान निर्माण के समय ही इस विषय को राज्य की सूची में डाल दिया गया था और राज्यों में 1935 से लेकर 1995 तक के जो कानून लागू हैं, वे सभी गौवध को प्रतिबंधित करते हैं। बात अलग है कि इसका उल्लंघन करने पर जुर्माने और सजा के जो प्रावधान हैं, उनमें बड़ा फर्क है। कुछेक राज्यों को छोड़कर जहां इस पर जुर्माना दस हजार और सजा पांच साल है, आधे से अधिक राज्यों में जुर्माना एक हजार और सजा छह महीने की है। इसके अलावा गौवध से संबंधित कानून के जो सब-क्लॉज हैं, वे इस कानून को और हल्का कर देते हैं। जहां तक इस मामले में यूपीए सरकार की पहल की बात है, तो उसने वर्ष 2013 में राष्ट्रीय पशुधन नीति भी बनाई, परंतु उसमें भी नीति के अनुबंध 17.6 के तहत राज्यों को स्वयं और स्वयंसेवी संगठनों को गौशालाओं की स्थापना में आर्थिक सहयोग का पाठ पढ़कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया गया। केंद्र ने वर्ष 1962 में  भारतीय पशु कल्याण परिषद की स्थापना की थी। यह सरकारी संस्था 14 जनवरी से लेकर 31 जनवरी का पूरा का पूरा एक पखवाड़ा भी पशु कल्याण के प्रति जनजागरण के रूप में मनाती है,परंतु उसका गौवंश और गौशालाओं के निर्माण के सहयोग का जो बजट है, वह ऊंट के मुंह में जीरे जैसा है।  पूरे देश के लिए यह संस्थान इस मद पर चार-छह करोड़ भी खर्च कर दे, तो बहुत है। ऐसा लगता है कि गौवंश के हितों को लेकर हमारे देश के नीति नियामकों की सोच तात्कालिकता पर टिकी है। पता नहीं कि दबावों में उसे धर्म की बजाय अर्थ के चश्में से देखने और तौलने की कोशिश नहीं की जाती, जबकि देश की बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में दूध और दुग्ध उत्पादों, स्वास्थ्य, ईंधन और पर्यावरण की दृष्टि से इस पर नए सिरे से सोचने और आवश्यक कदम उठाने की आवश्यकता है। हमारे अर्थज्ञ कहते हैं कि भारत के पास विश्व का सबसे बड़ा 17.6 प्रतिशत पशुधन है, लेकिन यदि हमारी अपनी आबादी के हिसाब से देखें, तो वह भी विश्व की आबादी की 17 प्रतिशत है। अब यदि हम अपने केंद्रीय कृषि और पशुपालन मंत्रालय की रिपोर्ट पर जाएं, तो हम दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में सिरमौर हैं। हमारा दुग्ध उत्पादन 133.8 मिलियन टन है और नेशनल डेयरी डिवेलपमेंट के आंकडों पर जाएं, तो इस हिसाब से प्रति व्यक्ति उपलब्धता 300 ग्राम है। हमारा दुग्ध उत्पादन चार प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ भी रहा है, लेकिन हमारी मांग छह प्रतिशत की दर से बढ़ रही है, जो दूध की कीमतों में हर दो माह में हो रही वृद्धि के कारणों में से एक है। इसके चलते देश में दूसरी दुग्ध क्रांति की वकालत की जा रही है। मोटे तौर पर भारतीय समाज दूध के लिए गाय पर निर्भर रहा है और उसे प्राथमिकता भी देता रहा है। अभी भी हमारा जो पशुधन है, उसमें गाय और भैंस का अनुपात दो और एक का है। उसकी वजह संभवतः गाय के दूध की गुणवत्ता और उसके गृह पालन में सुविधा रहा है। गाय के रूप में देश का आधे से अधिक पशुधन छोटे किसानों के पास है, लेकिन जैसे-जैसे संगठित क्षेत्र इसमें कूद रहा है, भैंस की दुग्ध उत्पादकता अधिक होने के कारण ‘काउ बैल्ट’ में भी भैंस को प्राथमिकता मिलनी प्रारंभ हो गई है। मजाक में यहां तक कहा जाने लगा है कि वह दिन दूर नहीं, जब गोभूमि महिश भूमि कही जाने लगे।  इसकी वजह है कि दोगुनी संख्या होने के बावजूद कुल दुग्ध उत्पादन में गाय की साझेदारी 43 प्रतिशत है। जहां तक गाय के दूध और घी की बात है, उसकी गुणवत्ता का कोई सानी नहीं है। गाय के दूध को मां के दूध से श्रेष्ठ कहा गया है और पोषकता की दृष्टि से संपूर्ण आहार। आयुर्वेद में इसका दूध न केवल सुपाच्य, बल्कि उसके पीले रंग के लिए जिम्मेदार कैरोटिन तत्त्व को कैंसररोधी और रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करने वाला बताया गया है। व्यक्ति की प्रकृति और दिनचर्या के हिसाब से गाय के घी और दूध का आनुपातिक मात्रा में सेवन सुरक्षित तो है ही, आयुर्वेद की कितनी ही औषधियों के सेवन में इनके अनुपान की तरह  प्रयोग करने की संस्तुति की गई है। गाय घी रसायन श्रेणी की औषधियों के भोषण और पाचन में उत्प्रेरक का कार्य करता है। कहने का आशय गाय के दूध के पोषक और औषधि मूल्य के सामने भैंस के दुग्ध उत्पादकों का कोई मुकाबला नहीं है। गाय के अर्थशास्त्र को झुठलाने में जो दो तर्क दिए जाते हैं, उनमें पहला है, घटते चरागाहों के चलते बूढ़ी और दूध न देने वाली गउओं का भरण पोषण और दूसरा खेती में टै्रक्टर और अन्य मशीनों के बढ़ते प्रयोग के चलते बैलों की घटती उपयोगिता है। यह बचत कई गुना हो सकती है। यह बात उनके लिए जानना जरूरी है, जो गौवंश के संरक्षण के हिमायती तो हैं, लेकिन विरोधियों को कोसकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। अंधेरे को बुरा भला कहने से अंधेरा दूर नहीं होता। उसके लिए प्रकाश लाना पड़ता है। बूचड़खाने खुद-ब-खुद बंद हो जाएंगे, पुनर्वास गोशालाएं स्थापित करने के लिए आगे तो आइए?

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