दीदग का ब्रजेश्वरी मंदिर
पीच वैली के नाम से विख्यात राजगढ़ क्षेत्र में विराजमान मंदिरों में लोगों की काफी आस्था है। मां ब्रजेश्वरी नगर कोटी खेडा मडी मंदिर व मूर्ति की स्थापना लगभग 1730 ई. में हुई। कारली भौज में पशुओं में भयंकर बीमारी फैली जिससे पशु काल का ग्रास बनने लगे। एक रात दीदग गांव के गुसाईं नामक व्यक्ति को स्वप्न हुआ कि इस महामारी से निजात पाने के लिए माता ब्रजेश्वरी की पूजा की जाए व मंदिर बनाकर मूर्ति स्थापित की जाए, क्योंकि इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों की यह कुल देवी है तथा लोग इस बात को भूल गए है। ऐसा स्वप्न आने के बाद गुसाईं ने ग्रामवासियों के साथ मिलकर कांगडा का सफर पैदल तय किया, वहां मंदिर से माता की मूर्ति प्राप्त करने हेतु पुजारी से निवेदन किया मूर्ति प्राप्त करने के बाद गुसाईं को माता की हवा आ गई। गुसाईं व ग्रामीण माता की मूर्ति लेकर घर लौट आए तथा एक लकड़ी का मंदिर जिसे खडिया कहा जाता है उसका निर्माण किया व मूर्ति की स्थापना कर पूजा अर्चना शुरू की गई। घर पर माता का जागरण व भंडारा किया गया जिससे पशुओं में फैली माहामारी समाप्त हो गई तथा माता पशु,धन,फसल की सुरक्षा करने वाली देवी मानी जाने लगीं। हर तीसरे साल माता की मूर्ति को कांगड़ा मंदिर ले जाकर मुख्य मूर्ति का स्पर्श करवाया जाता था व स्नान करवाकर वापस स्थापित कर दिया जाता था यह सिलसिला गुसाईं के जीवन काल में चलता रहा। वृद्धावस्था के कारण गुसाईं ने चावल देकर पूजा का कार्यभार अपने पुत्र नोहा राम को सौंप दिया। उसने ग्रामवासियों के सहयोग से पूर्व में चली आ रही परंपराओं को कायम रखा। इस क्षेत्र के लोगों और श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ने के कारण खडिया में पूजा करने में कठिनाई आने लगी। नोहा राम ने ग्रामवासियों से विचार विमर्श किया, जिन्होंने माता का मंदिर ग्राम दीदग की उंची धार खेडा में बनाने का सुझाव दिया। इसके बाद ग्राम वासियों के सहयोग से माता का एक मंदिर खेड़ा में बनाया गया। इसी गांव के हस्तशिल्पी स्व. श्री नाहंदडू राम ने माता की पत्थर निर्मित मूर्ति, पिंडी व शेर का निर्माण करके मंदिर में विधि विधान से स्थापित किया गया। इस मंदिर में हर वर्ष चैत्र के नवरात्रों में मेले लगने शुरू हो गए। माता की मूर्ति को हर नवरात्र में मंदिर ले जाया जाता व नवरात्रों के बाद खडिया में स्थापित किया जाता है, जो सिलसिला आज तक चल रहा है। वृद्धावस्था के कारण नोहा राम ने माता की पूजा-अर्चना का कार्य अपने जेष्ठ पुत्र मौंगाराम को व माता का भंडार छोटे पुत्र बेलीराम को सौंप दिया। स्थानीय लोगों में आस्था बढ़ती गई व चैत्र नवरात्रों में लगने वाले मेले की शोभा बढ़ती गई। माता की पूजा घी, दूध व अनाज से की जाती है। बेली राम व मूंगा राम की वृद्धावस्था के कारण पूजा का कार्य धनीराम व भंडार का कार्य सत्यपाल को सौंपा गया। धनीराम ग्राम पंचायत के प्रधान बने व मंदिर का जीर्णोंद्धार करने का विचार आया। भाई सत्यपाल के सहयोग से कार्य शुरू कर दिया गया परंतु कार्य पूर्ण न हो सका। हारकर धनीराम ने गांव के करेणों (ग्रामवासियों)को एकत्र कर अपनी समस्या से अवगत करवाया। देवी के गूर को थानाधार से बुलाया गया व हवा पूछी गई, गूर ने कहा कि धनीराम ने मेरे करेणों को बिना साथ लिए जीर्णोंद्धार का कार्य शुरू किया धनीराम ने करेणों से व माता से क्षमा मांगी व मंदिर का प्रबंधन करेणों को सौंपा गया। मंदिर का कार्य 15 दिनों में समाप्त करके माता की मूर्ति को कांगड़ा यात्रा पर शरद नवरात्र 2004 में ले गए व वापस आकर मूर्ति को मंदिर में स्थापित किया गया। राजगढ़ मुख्यालय से 14 किमी.की दूरी पर स्थित दीदग ग्राम पंचायत की उंची धार पर यह मंदिर विराजमान है। । सरकार द्वारा इस स्थान को पर्यटन की दृष्टि से विकसित करने का कार्य शुरू किया गया है। इस मंदिर की विशेषता है कि मंदिर में पूजारी ब्राह्मण न होकर अनुसूचित जाति (कोली) बिरादरी से बनते हैं। जिस कारण यहां पर छुआछूत का भेदभाव नहीं है। माता पशु धन फ सल कुल की रक्षा करती हैं। यदि किसा व्यक्ति के शरीर पर मस्से हो जाएं तो यहां कि मन्नत करने पर मस्से बिना किसी ईलाज के ठीक हो जाते हैं इस मंदिर में चैत्र व शारदीय नवरात्रों में 9 दिन पाठ व हवन जागरण भंडारे का आयोजन किया जाता है।
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