Sunday, 23 February 2014

Devi narsinghi Temple katrai kullu

Kullu ke Temple     कटराईं का माता नृसिंही मंदिर

देवी नृसिंही को   एक रूप में अत्यंत विशालकाय बताया गया है जिसमें देवी के एक हजार आठ सिंह मुख हैं और दो हजार सोलह भुजाएं बताई गई है तथा यह चार शेरों के रथ पर सवार है जो चार वेदों को दर्शाते हैं। देवी नृसिंही का अर्द्धवना भद्रकाली रूप, वेद को संरक्षित रखता है। देवी का स्वभाव या चरित्र बिल्कुल सीधा और सरल है। देवी नृसिंही को एक रूप में अत्यंत विशालकाय बताया गया है जिसमें देवी के एक हजार आठ सिंह मुख हैं और दो हजार सोलह भुजाएं बताई गई है तथा यह चार शेरों के रथ पर सवार है जो चार वेदों को दर्शाते हैं। देवी नृसिंही का अर्धवना भद्रकाली रूप वेद को संरक्षित रखता है। देवी का स्वभाव या चरित्र बिल्कुल सीधा और सरल है। वेद में उल्लेख है कि यदि देवी नृसिंही की पूजा आराधना की जाए तो यह देवी अपने भक्तों की हर स्थिति में रक्षा करती हैं।  एक कहानी के अनुसार प्राचीन काल में दो साधुओं अंगिरा व प्रत्यांगिर ने इस देवी की साधना करके इन्हें प्रसन्न किया और देवी ने इनकी साधना से प्रसन्न होकर इन्हें दर्शन दिए।  इन साधकों के नाम से ही देवी ने अपना नामकरण किया जिसे आज हम सब प्रत्यागिंरा या नृसिंही के नाम से जानते हैं। देवी तब से लेकर आजतक इस धरती पर जन कल्याण और अपने भक्तों की रक्षा करने के लिए विराजमान हैं। ऐसी मान्यता है कि कटराईं में हजारों वर्ष पहले एक परिवार देवी नृसिंही को अपनी ईष्ट देवी के रूप में पूजा करता था जिसका नाम ‘र’ अक्षर से शुरू होता था। उस परिवार ने देवी की पिंड के रूप में स्थापना की तथा देवी का मोहरा व अन्य वस्तुएं भी बनाई। इसके साथ ही देवी के पिंड को एक छोटे से मंदिर में स्थापित किया जिसे डेहर कहा जाता है। जैसे-जैसे वर्ष बीतते गए तो पिंड व मोहरे और प्रबल होने लगे। कई वर्षों के बाद यहां पर भूकंप आने से देवी की डेहरी नष्ट हो गई जिससे पिंड व मोहरे धरती में विलीन हो गए। नृसिंही देवी के इसी जगह प्रकट होने पर दृष्टि दौड़ाएं तो वर्ष 1992 में कटराईं के एक घर में भीषण आग लगने के कारण घर पूर्ण रूप से क्षतिग्रस्त हो गया और फिर वर्ष 1996 में इस घर का पुनः निर्माण आरंभ किया गया। मकान की खुदाई करने पर यहां पर देवी का मुख्य मोहरा मिला और घर वालों ने इसे अपने पास रखा।  लेकिन उसके बाद घर में ऐसी घटनाएं घटित हुई जिससे हालात बिगड़ने लगे। घर वालों ने उस मोहरे को एक व्यक्ति को सौंपा जो वर्तमान में देवी नृसिंही के पुजारी व चेले हैं जो पहले से ही देव विधियों से अवगत थे। उसके उपरांत उन्हें उस मोहरे को पंचमुखी हनुमान के मंदिर में ले जाने का आदेश हुआ। यह मंदिर कुल्लू के ढालपुर के सोरी-रोपे में स्थित हैं। लेकिन सभी देवी नृसिंही के इस रूप से अनभिज्ञ थे। इसके एक वर्ष बाद नवंबर 2000 में वीर पूर्णिमा के दिन देवी शक्ति ने अजय शर्मा द्वारा देव खेल में अपना वर्णन दिया जिससे सबको ज्ञात हुआ कि यह मोहरा देवी नृसिंही का है। उसके बाद देवी के इस मोहरे को उसी तरह से रथ में विराजमान किया गया,जिस तरह से प्राचीन काल में विद्यमान था। वर्ष 2004 में कटराईं में नए रथ की प्रतिष्ठा की गई। गूर के माध्यम से यह बताया गया कि यह एक ब्रह्म शक्ति है जो तीर्थ स्नान के बिना अधूरी है।  देवी के इस मोहरे को रथ में स्थापित कर मनाली के वशिष्ठ में इसे स्नान करवा कर इसे वहीं विराजमान कर दिया जहां पर यह देवी का मोहरा खुदाई में मिला था। इसके बाद इस स्थान में देवी के मंदिर निर्माण का कार्य वर्ष 2006 में शुरू हुआ। एक वर्ष बाद मंदिर का कार्य पूरा होने पर देवी के पिंड व मूर्ति की स्थापना मंदिर में की गई। वर्ष 2010 में देवी नृसिंही ने एक अन्य रथ का निर्माण किया गया जिसमें देवी के चांदी के मोहरें के साथ-साथ देवी का मुख्य मोहरा स्थापित किया गया। यह रथ वर्ष के विशेष दिनों में जैसे कि चैत्र के नवरात्र, श्री नृसिंही जयंती, सावन माह और अश्विन-कार्तिक के नवरात्रों में सजाया जाता है। जिस प्रकार से प्राचीन काल में देवी द्वारा अपने भक्तों की रक्षा करती थी आज भी उसी तरह से यहां देवी नृसिंही अपने भक्तों के गृह, उनकी पारिवारिक, शारीरिक समस्या का निदान देव विधि द्वारा करती हैं। लोगों में अपार आस्था होने के साथ मंदिर में देवी के आगे सभी नतमस्तक होकर आशीर्वाद पाते हैं।
         – गिरीश वर्मा, पतलीकूहल

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