किन्नर कैलाश परिक्रमा
किन्नर कैलाश बौद्ध तथा हिंदू दोनों ही समुदायों के लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। हिंदू इसे भगवान् शिव और माता पार्वती का निवास स्थान मानते है तो बौद्ध समुदाय इसे अपने उपास्य देव चक्रसंवर और वज्रवाराही की आश्रयस्थली मानता है। मान्यताएं तथा परंपराएं जो भी हों, दोनों समुदायों का उद्देश्य एक ही है – इस स्थल के दर्शन तथा परिक्रमा से अर्जित पुण्य द्वारा मानवता के लिए सुगति का मार्ग प्रशस्त करना। इस कारण किन्नर कैलाश की यात्रा में दोनों समुदायों के लोग परस्पर प्रेम और सौहार्द की मिसाल कायम करते हुए बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं। किन्नौर की धर्म-संस्कृति में किन्नर कैलाश का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। स्थानीय लोग इसे ‘रलडङ्’ तथा इसकी परिक्रमा को ‘रलडङ् कोरा’ कहते हैं। किन्नौर की आदिम संस्कृति 6500 मीटर ऊंचे किन्नर कैलाश शिखर को न केवल पर्वतीय देवी-देवताओं का निवास स्थान मानती है बल्कि इसे यमपुरी की संज्ञा भी दी जाती है। स्थानीय मान्यतानुसार मृत्यु के बाद व्यक्ति की आत्मा रलडङ् जाती है। इस संबंध में कई प्रकार की लोक मान्यताएं हैं। किन्नर कैलाश शिवलिंग तक पहुंचने के लिए पहले दिन पोवारी से लेकर गुफाओं तक लगभग 12-13 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। अगले दिन यहां से आगे करीब 2 किलोमीटर के फासले पर स्थित गौरी कुंड होते हुए इसके आगे लगभग 3 किलोमीटर की सीधी पथरीली चढ़ाई तय करनी पड़ती है। कुल मिलाकर 17-18 किलोमीटर की पैदल दूरी तय करके पवित्र शिवलिंग के दर्शन होते हैं। आगे जाने पर एक सरोवर है जिसके चारों ओर हरा-भरा समतल स्थल है। इसी सरोवर के बीच में भगवान् श्रीकृष्ण का प्राचीन मंदिर है। वर्तमान में इसका जीर्णोद्धार किया गया है। स्थानीय किन्नौरी लोग जन्माष्टमी से परिक्रमा आरंभ करते हैं किन्नौर निवासी इस यात्रा का शुभारंभ जहां करछम से करते हैं वहीं ऊपरी किन्नौरवासी गिनम से यात्रा आरंभ कर वापसी में यहीं लौटकर परिक्रमा पूरी करते हैं। पुराने समय में यह पूरी परिक्रमा पैदल तय किए जाने के कारण काफी मुश्किल थी। शिवलिंग में अनंत शक्ति मानते हुए इसे सृष्टि तथा मानव जाति की उत्पत्ति का प्रतीक माना जाता है। यहां की भूमि को देवभूमि तथा भगवान् रापुक शंकर का निवास स्थान माना जाता है। वर्ष 1995 में मंदिर का पुनर्निर्माण कर इसको नई शक्ल दी गई। यह स्थान क्षेत्र में अंतिम शिव स्थल है। यहां प्रतिवर्ष अष्टमी से मौनी अमावस्या तक आठ दिवसीय मेला लगता है। वास्तव में यहां की एक पहाड़ी का नाम रापुक होने के कारण ही ग्राम देवता को रापुक शंकर कहा गया। मान्यतानुसार इस पहाड़ी के अधिष्ठाता स्वयं भगवान् शंकर थे।
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