अक्षम को आकाश दिखाती ‘अनुराधा’
पहाड़ के अक्षम बच्चे जब विशेष ’ओलंपिक्स में स्वर्ण पदक जीत कर लाते हैं तो उनकी कोच को बेहद खुशी होती है। हम बात कर रहे हैं हारमोनी थ्रो एजुकेशन स्पेशल नीड स्कूल, धर्मशाला की प्रधानाचार्य अनुराधा शर्मा की। किसी भी तरह इन अक्षम बच्चों का उत्थान हो और वे अपने पांव पर खड़े हों, अनुराधा शर्मा वर्षों से इसी जद्दोजहद में जुटी हैं। अक्षम बच्चों के जीवन का हिस्सा बन चुकीं अनुराधा शर्मा कहती हैं कि सामान्य बच्चों को तो हर कोई पढ़ा सकता है, लेकिन जब वह इन अक्षम बच्चों को पढ़ाती हैं ओर सिखाती हैं तो उन्हें आनंद की अनुभूति होती है। जब अक्षम बच्चा पूरी तरह अपने पांव पर खड़ा होने योग्य हो जाता है, तो अनुराधा शर्मा में काम करने के प्रति ललक बढ़ती है। अनुराधा शर्मा की शादी वर्ष 1999 में दाड़ी में धमेंद्र के साथ हुई। सास चूंकि महिलामंडल की प्रधान हैं, तो उन्होंने भी अनुराधा को समाजसेवा के कामों को करने के लिए प्रेरित किया। रेडक्रॉस के अधीन चलते प्रयास के साथ अक्षम बच्चों के लिए घर-घर सर्वे किया तो एक बच्चे को बेड पर पाया, उसकी हालत पर बच्चे के मां-बाप दुखी थे, तो उस दिन अनुराधा शर्मा ने इन अक्षम बच्चों के लिए कुछ करने की ठान ली। दाड़ी में ही वर्ष 2002 मे रेडक्रॉस की मदद से अक्षम बच्चों को एजुकेशन देने के लिए स्कूल खोला, लेकिन स लड़की ने एक वर्ष बाद दम तोड़ दिया, क्योंकि मेहनताना मात्र 500 रुपए मिला था। बावजूद इसके अनुराधा शर्मा अकेले अपने बूते इस कार्य को आगे बढ़ाती रही। इन अक्षम बच्चों के लिए बेहतर ढंग से कुछ हो सके, इसके लिए ट्रेनिंग जरूरी थी। नतीजतन अनुराधा ने दो वर्ष का कोर्स प्रेम आश्रम ऊना में किया तो मजबूरन इस स्कूल को बंद करना पड़ा। कोर्स पूरा होने के बाद जुलाई, 2008 में अनुराधा शर्मा ने हारमोनी थ्रो एजुकेशन स्पेशल नीड स्कूल में सेवाएं देनी आरंभ की। विशेष ओलंपिक गेम्स के लिए अक्षम बच्चों को टे्रनिंग देने में दक्ष अनुराधा शर्मा की शिष्या डिंपल को जब साउथ कोरिया में आयोजित विशेष ओलंपिक में स्वर्ण पदक मिला तो उन्हें बेहद खुशी हुई। वह कहती हैं कि अक्षम बच्चों की खेल गतिविधियों के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है, लेकिन उपकरणों के अभाव में उम्मीदें दम तोड़ रही हैं। हालांकि ग्रीटिंग कार्ड्स व पेंटिंग्स के अलावा बहुत कुछ इन अक्षम बच्चों को यहां सिखाया जा रहा है। बाकायदा अक्षम बच्चों द्वारा बनाई गई कलाकृतियों की प्रदर्शनी भी यहां लगाई जाती है। अनुराधा कहती हैं कि इसी स्कूल का आकाश अब अपने पैरों पर खड़ा हो गया है। स्कूल के ट्रस्ट ने उसे किचन हेल्पर की नौकरी दे दी है। स्कूल के अन्य बच्चे भी अब सक्षम होने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। लोग अक्षम बच्चों के लिए बेचारा शब्द का प्रयोग करते हैं तो अनुराधा आहत होती हैं। वह कहती हैं कि इन बच्चों को बेचारा कहने के बजाय हिम्मत देकर हौसला बढ़ाने की जरूरत है। अनुराधा बताती हैं कि यही ज्ञान अक्षम बच्चों को यहां दिया जाता है। अकेडमिक, सोशल एक्टिविटी के साथ-साथ प्रो वोकेशनल करवाई जाती है। वह कहती हैं कि अक्षम बच्चे वो कर दिखाते हैं जो सामान्य बच्चे भी न कर पाते हों। अक्षम बच्चों का पंजीकरण संख्या 60 होने के बावजूद यहां क्षमता कम होने की वजह से 30 बच्चों को ही एडमिशन दी गई है। वह कहती हैं कि सरकार और दानी सज्जनों के हाथ इस दिशा में आगे बढं़े, तो अक्षम बच्चों के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है।
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