जीवन एक प्रत्यक्ष देवता
जीवन हम हर घड़ी जीते हैं, पर न तो उसकी गरिमा समझते और न यह सोच पाते हैं कि इसके सदुपयोग से क्या-क्या सिद्धियां उपलब्ध हो सकती हैं। प्राणी जन्म लेता और पेट प्रजनन की, प्राकृतिक उत्तेजनाओं से विक्षुब्ध होकर, निर्वाह की जरूरतें पूरी करते हुए दम तोड़ देता है। ऐसे क्षण कदाचित ही कभी आते हैं, जब यह सोचा जाता हो कि स्रष्टा की तिजोरी का सर्वोपरि उपहार मनुष्य जीवन है, जिसे अनुग्रहपूर्वक यह जीवन दिया गया है, उससे यह आशा की गई है कि वह उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करेगा। अपनी अपूर्णता पूरी करके तुच्छ से महान बनेगा, साथ ही विश्व उद्यान को कुशल माली की तरह सींचते-संजोते, यह सिद्ध करेगा कि उसे स्वार्थ और परमार्थ के सही रूप का ज्ञान है। स्वार्थ इसमें है कि पशु-प्रवृत्तियों की कुसंस्कारिता से पीछा छुड़ाएं और सत्प्रवृत्तियों की आवश्यक मात्रा में अवधारणा करते हुए उस परीक्षा में उत्तीर्ण हों, जो धरोहर का सदुपयोग कर सकने के रूप में सामने प्रस्तुत हुई है, जो उसमें उत्तीर्ण होता है, वह देवमानव की कक्षा में प्रवेश करता है। अपना ही भला नहीं करता, असंख्यों को अपनी नाव में बैठाकर पार कराता है। ऐसों को ही अभिनंदनीय, अनुकरणीय महामानव कहा जाता है। तृप्ति, तुष्टि, शांति के त्रिविध आनंद ऐसों को ही मिलते हैं। जीवन देवता की साधना से ही महासिद्धियां प्राप्त होती हैं। कस्तूरी के हिरन जैसी बात है। बाहर खोजने में थकान और खीज ही हाथ लगती है। शांति तब मिलती है, जब उस सुगंध का केंद्र अपनी ही नाभि में होने का पता चलता है। परमात्मा के साथ संपर्क स्थापित करने के लिए अन्यत्र खोज-बीन करने की योजना व्यर्थ है। वह एक देश-काल तक सीमित नहीं है, कलेवरधारी भी नहीं। उसे अति निकटवर्ती क्षेत्र में देखना हो तो वह अपना अंतःकरण ही हो सकता है। समग्र जीवन इसी की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। गीताकार से उस परब्रह्म को श्रद्धा में ही समाहित बताया है और कहा है कि जिसकी जैसी श्रद्धा हो, वह वैसा ही है, जो अपने को जैसा मानता है, वह वैसा ही बन जाता है। यदि अपने को तुच्छ और हेय समझते रह जाएगा तो व्यक्तित्व उसी ढांचे में ढल जाएगा, जिसने अपने अंदर महानता आरोपित की है, उसे अपना अस्तित्व मानवीय गरिमा से ओत-प्रोत दिखाई पडे़गा। साधना से सिद्धि का सिद्धांत सर्वमान्य है। प्रश्न का सही उत्तर यह है कि जीवन को ही जीवित-जागृत देवता माना जाए। उसके ऊपर चढ़े कषाय-कल्मषों का परिमार्जन करने का प्रयत्न किया जाए। अंगार पर राख की परत जम जाने पर वह काला-कलूटा दिखाई पड़ता है, पर जब वह परत हटा दी जाती है तो भीतर छिपी अग्नि स्पष्ट दिखने लगती है। साधना का उद्देश्य इन आवरण-आच्छादनों को हटा देना भर है। इसे प्रसुप्ति को जागरण में बदल देना ही कहा जा सकता है। ऋषि ने पूछा — कस्मै देवाय हविषा विधेम अर्थात हम किस देवता के लिए भजन करें? उसका सुनिश्चित उत्तर है—आत्मदेव के लिए। अपने आप को चिंतन, चरित्र और व्यवहार की कसौटियों पर खरा सिद्ध करना ही वह स्थिति है, जिसे सौ टंच सोना कहते हैं। पेड़ पर फूल-फूल ऊपर से टपककर नहीं लदते, वरन् जड़े जमीन से जो रस खींचती हैं, उसी से वृक्ष बढ़ता है और फलता-फूलता है। जड़ें अपने अंदर हैं, जो समूचे व्यक्तित्व को प्रभावित करती हैं।
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